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सफर - मौत से मौत तक….(ep-11)

नंदू रिक्शा लेकर वापस दवाई के दुकान के पास पहुंचा। चिंतामणि अब भी पेड़ के नीचे ही बैठा था जहाँ उसे बिठाया गया था, जबकि उधर अब छाया नही धूप थी।

"ये क्या बाबूजी! आप धूप में क्यो बैठे है, उठकर छाया में बैठ जाते" नंदू ने कहा।

"मुझे धूप अच्छी लग रही थी, छाया में ठंड जैसी महसूस हो रही थी" चिंतामणि ने कहा।

नंदू ने बाबूजी का हाथ पकड़कर उन्हें रिक्शे में बैठाते हुए कहा- "सच सच क्यो नही बोलते की उठने की ताकत नही थी, इसलिए बैठा रहा धूप में"

नंदू की बात पर चिंतामणि हँस दिया- "हँहँहँहँ"
इतनी तकलीफ में भी चिंतामणि को ये हँसी नंदू की कही बात पर नही आई, जबकि इस बात पर आई कि नंदू भी उसकी सारी तकलीफें उसी तरह समझ लेता है जैसे बचपन मे चिंतामणि नंदू की समझता था, साथ ही इस हँसी से चिंतामणि ने नंदू की बात के लिए हामी भी भर दी थी जो कि नंदू समझ चुका था।

"हँस लेते हो बस….छिपाते छिपाते तकलीफ बढ़ा दी ना आपने….अगर ये तकलीफ और ज्यादा बढ़ने लगेगी तो फिर अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ेगा" नंदू ने कहा।

"नही, उसकी जरूरत नही पड़ेगी…. मुझे लग रहा है बहुत जल्दी ठीक होने वाला हूँ मैं" चिन्तामणि ने कहा, चिंतामणि का इशारा कुछ और था जो नंदू नही समझ पाया।

"अभी दवाई खरीदी भी नही है, आपको असर दिखने लग गया….आप आराम से बैठो में दवाई के पैसे देकर दवाई ले लेता हूँ" नंदू ने कहा।

नंदू जाकर दवाई ले आया, और फिर बाबूजी को लेकर घर की तरफ निकल पड़ा।

कुछ दिन तक दवाई खाकर ऐसा लग रहा था कि शायद नंदू के बाबूजी चिंतामणि जी ठीक हो जाएंगे, लेकिन धीरे धीरे अंदर ही अंदर बीमारियों का घर बनता चला गया। चिंतामणि जी अपनी तबियत को ठीक बताते हुए यही कहते थे कि पहले से फर्क है, पहले से ठीक हूँ, लेकिन असल बात तो ये थी कि वो हॉस्पिटल का मुंह नही देखना चाहते थे, वो जानते थे नंदू के पास पैसा नही है, डॉक्टर उनका इलाज तो कर पायेगा नही लेकिन पैसे पूरे पूरे खर्च करवाएगा, मरते समय अपने बेटे को कर्ज में नही डूबाना चाहते थे।
  वो शायद जान चुके थे कि अब उनका जाना तय ही है, लेकिन मरते मरते भी ख्वाहिशें कुछ अधूरी रह ही जाती है, कुछ ख्वाब मरते दम तक पूरे नही होते। और एक ख्वाब पूरा हो भी जाये,आंखे कंजूसी नही करती ख्वाब देखने में,
चिंतामणि जी के आंखों में एक ख्वाब और था कि बस एक बार पोते-पोती का मुंह देख लूँ, लेकिन अभी तीन चार महीने और बाकी थी।
   गौरी को अभी छठा महीना चला हुआ था, ससुर जी बहुत बीमार थे, नंदू भी टेंशन में कभी कहाँ कभी कहाँ से परामर्श लेकर आता और बार बार बाबूजी को कहता कि चलो, अस्पताल, एक बार और अच्छे से दिखा लेते है,
लेकिन चिंतामणि उसकी बात को टाल देता और कहता-

"इतनी सारी दवाई खाकर देख लिए, अगर ठीक होना होता तो हो जाता,अब ज्यादा दवाई भी तो नुकसान ही करती है, एक बार सारी दवाईयां छोड़कर भी देख लेता हूँ," चिंतामणि ने कहा।

"एक रोटी का टुकड़ा नही निगला जा रहा आपसे, और कहते हो ठीक हो जाऊंगा….बिना दवाई के भला कौन ठीक हो जाएगा"  नंदू ने कहा।

अंदर से गौरी ने आवाज देते हुए कहा।
"आज सुबह से चाय भी एक ही वक्त पी है इन्होंने, वो भी उल्टी कर दी,  दिन में दलिया बनाया, एक चम्मच भी नही खाया, बस कभी गुनगुना पानी माँग रहे है तो कभी मटके का ठंडा"

नंदू ने नाराजगी भरी नजरो से बाबूजी की तरफ देखा।

"बस पानी पीकर कैसे रह लोगे आप, ऐसे ठीक होना छोड़कर और बीमार हो जाओगे, चाय तक छोड़ दी आपने जो आपको पांच वक्त भी मिल जाये वो भी कम थी" नंदू ने दुखी स्वर से कहा और उठकर अपने बिस्तर की तरफ चले गया,  बाबूजी की हालत देखकर नंदू की भी भूख आधी हो चुकी थी आजकल, दो से तीन रोटी जबरदस्ती खाता था,

"आप तो खा लो खाना, आप क्यो अंदर चले गए"  गौरी ने आवाज देते हुए नंदू को आवाज दी।

कौशल्या ने गौरी से शांत होने को कहा और एक थाली में खाना डालकर कमरे में ही ले गयी, और नंदू को देने लगी

"उनकी तो ताबियत खराब है बेटा, तू क्यो खुद को बीमार कर रहा है, तू बीमार हो जाएगा तो उनको कौन ठीक करेगा, उनका इलाज कौन करेगा"  कौशल्या ने कहा।

नंदू ने माँ को देखा और आंसू पोछते हुए माँ की तरफ देखा और कहा- "रख दो इधर ढक कर, भूख लगेगी तो खा लूँगा, बाबूजी को फल काट के दे दो, सेब लाया था मैं, खा लिए क्या उन्होंने"

"नही खाया, एक काटा था, कोशिश भी अपनी तरफ से पूरा कर रहे थे, लेकिन मजबूर है वो…." कौशल्या बोली।

नंदू ने नजर झुका ली और एक बार फर याद दिलाते हुए मां से कहा- "ये खाना ढकने के लिए भी ले आना थाली"

कौशल्या किचन में गयी और एक थाली लाकर उसका खाना ढक दिया।

माँ के जाने के बाद नंदू एक बार फिर रोया याद करते हुए की जो पिताजी आज एक कोने में पड़े है, ठीक से बैठने की भी ताकत नही है वो एक वक्त था जब दिन भर मजदूरी करके शाम को कभी कभी शराब पीकर बहुत ही प्यार से आवाज लगाते थे वो लड़खड़ाती आवाज में बेहोशी में भी बहुत कुछ बोलते थे।

"नंदू……ओ नंदू……तेरी माँ जो है मुझे पागल समझती है, उसे नही पता मैं कैसे क्या कर रहा हूँ, अभी बहुत काम है मेरे पास….सरला की शादी करनी है….फिर तुलसी की और फिर तेरी भी……सबकुछ करना है मैंने….और इसे लगता है मैं बस शराब पीता हूँ, कुछ नही करता"

"और क्या करते हो फिर….सारा खर्चा नंदू कर रहा, तुमने जो कमाया वो उड़ाया….कभी दो पैसे मेरे हाथ मे रखे होते तो पता लगता कि कुछ कमा रहे हो" कौशल्या के तीक्ष्ण स्वर चिंतामणि के कान में गए तो वो और भड़क उठा

"तू तो चाहती यही है, सारा पैसा लाऊ और तेरे हाथ मे रख दूँ, और फिर तू अपने मायके का पूरा करेगी, सब समझता हूँ मैं…. हर महीने जो जाती है वहाँ, कहाँ से आते है पैसे….कौन देता है" लड़खड़ाती आवाज में चिंतामणि ने कहा।

"मेरे मायके वालों का तुमने ही पूरा किया है….कितना देते हो तुम उनको….सारे पैसे तो मैं आपने मायके ही ले जाती हूँ……… एक रूपया भी दिया कभी….और कब गयी मैं मायके, गुड्डू की शादी में गयी थी और तब भी एक किलो मिठाई ले जाने के लिए पैसे नही थे तुम्हारे पास, और एक पउवा जेब मे डालकर घूम रहे थे" कौशल्या बोलते बोलते रो पड़ी।

कौशल्या अब चुप होने वाली कहाँ थी, बस रोते रोते बहुत सारी अनसुने किस्से सुनाने लगी,

नंदू ने कान में तकिया रखा और सोचने लगा, कब मिलेगा इन झगड़ो से छुटकारा, क्या जिंदगी भर ऐसे ही झगड़े देखने को मिलेंगे।

लेकिन आजकल कुछ दिनों से घर के सारे झगड़े बंद हो चुके थे, बस सब लोगो की आपसी एकता और एक दूसरे की फिक्र ही नजर आ रही थी। नंदू अब ये सोचने लगा कि बाबूजी कब ठीक होंगे और वापस उनमें वो झगड़ने की ताकत आएगी। मगर लगता है अब नंदू को उन झगड़ों से छुटकारा मिल चुका था, लाख झगड़े करने के बाद भी आज संकट की घड़ी में सब एक थे, सब बाबूजी की सेवा में जुटे हुए थे।
   "आज बाबूजी को ना मां की आवाज से नफरत है,ना उनकी डाँट बुरी लगती है, और माँ तो चाहती है कि बाबूजी उन्हें चार खरी खोटी सुनाए, कुछ तो बोले, ऐसे गुमशुम बैठने से अच्छा थोड़ी बात करे, झगड़ा ही सही, चार गालियां ही दे दे भले मुझे, मेरे मायके वालों को बुरा भला ही कह दे। मगर चिंतामणि के पास इतनी ताकत नही थी कि वो  दो बात कर सके, बिना खाये पिये आदमी को बोलने का भी सामर्थ्य नही रहती, और वो तो बस पानी के भरोसे जी रहे थे।

नंदू बिना खाये सोच में डूबे नींद में खो चुका था, क्योकि दिन भर रिक्शे में घूमकर थक जाता था, इसलिए उसे नींद आ गयी, सारा काम निपटाकर, चिंतामणि को बिस्तर में लेटाकर एक चादर ओढाने के बाद गौरी भी कमरे में आई और सो गई,

कौशल्या थोड़ी देर तक अपने पति के पैर दबाती और फिर सो जाती। नींद ना कौशल्या को आती, ना चिंतामणि को,
चिंतामणि भी रात भर कराहता रहता था, कभी खांसता तो कभी कुछ बड़बड़ाने लगता था।

कुछ दिन ऐसा चलता रहा, और एक दिन…….

पूरे घर मे शोर का माहौल था, रात के दो बजे अचानक कौशल्या ने जोर जोर से चीखना शुरू कर दिया, उसकी चीख से नंदू और गौरी भी उठकर आये, सुबह तक रोना धोना जारी था। अडोसी पड़ोसियों की भीड़ घर मे इककठ्ठी हो चुकी थी।

यमराज और नंदू अंकल भी ये दृश्य देखकर बहुत ही भावुक हो गए, नंदू अंकल ने भी ये दृश्य देखा और आंखे बंद कर ली, वो नही देख पा रहा था उस असहनीय पीड़ा को एक बार फिर, छोटी छोटी घटनाएं देखकर आंसू बहाने वाले नंदू अंकल के आंखों में अभी कोई आंसू नही थे, जबकि छोटा नंदू अभी आंसू के गंगा बहा रहा था।

"मैं तो आपको रोने के लिए कंधा देने के लिए तैयार हो चुका था, मुझे लगा आप बहुत रोयेंगे" नंदू ने कहा।

"नही पागल! वो उस असहनीय पीड़ा से मुक्त हो चुके थे उस दिन, हम कभी कल्पना भी नही कर सकते है कि वो किस दौर से गुजर रहे थे, जिन्हें अपने ही थूक को निगलने में तकलीफ होने लगे, वो दो घूंट पानी नही निगल पा रहे थे,
लेकिन लगातार उनका गला सूखे जा रहा था, उन्हें दो से तीन से हो गए उन्होंने मूत्र नही किया था। क्या करते ऐसी जिंदगी का" नंदू ने कहा।

"चलो ठीक है थोड़ा आगे बढ़ जाते है, बोलो इसके बाद किस वक्त पर कदम रखना है" यमराज ने कहा।

"मेरी जिंदगी में हर वक्त उदास ही आया है, किसी भी वक्त में कदम रखो चाहे, तीन बातें मेरी जिंदगी में बहुत खास भूमिका निभाती है
एक आंखे नम, और दूसरी ढेरों गम और अंतिम हर राह पर हर पल अकेले हम" नंदू बोला।

"छोटी छोटी खुशियों को नजरअंदाज करेंगे तो उदासी ही हाथ लगेगी, आप अपनी जिंदगी में सिर्फ तकलीफ ही ढुढते थे, शायद हर पल उदासी की वजह यही है" यमराज ने कहा।

"अभी आप पहली सीढ़ी में है,  शायद इसलिए आपको मेरे जीवन मे आये गमो का नही पता, जब किसी का पता नही मिलता था तो सारे दुख तकलीफ मेरे दरवाजे पर आकर दस्तक देने लग जाती थी" नंदू ने कहा।

यमराज नंदू को ध्यान से देख रहा था,

"आपकी हर बात इतनी गहरी क्यो होती है , और भाषा भी साहित्यिक है, सुसाइड करने से अच्छा लेखक बन जाते, कसम से सुपर डुपर हिट रहती आपकी रचना" यमराज बोला।

"हर इंसान की कहानी एक जैसी  होती है साधारण सी, लेकिन  उसे पेश करने का तरीका अच्छा हो तो वो अपने आप मे खास बन जाती है और इंटरेस्टिंग भी…मेरी कहानी बहुत ही साधारण और सिंपल है, अक्सर हर इंसान की एक ऐसी ही कहानी होती है जिसमे उसे सुख और दुख हासिल होते है, किसी को कम तो किसी को ज्यादा,  लेकिन उनकी पेशकश में जान नही होती है शायद इसलिए लोग उनकी कहानी से अनजान रह जाते है, और मेरी कहानी से भी लोग हमेशा अनजान रहेंगे अब, क्योकि अब मैं किसी को बता नही पाऊंगा अपनी ये कहानी जो हम दोनों देख पा रहे है" नंदू ने यमराज से कहा।

"आप अपनी बातों की गहराई में डुबाते जा रहे हो, चलो छोड़ो ये सब बातें, अब कुछ हो ही नही सकता तो सोचकर क्या फायदा……" यमराज ने कहा।

कुछ दिन बाद, नंदू एक बार फिर रिक्शा लेकर काम पर जाने लगा, लेकिन उसका काम मे बहुत कम मन लगता था, बार बार बाबूजी की याद का आ जाना उसको तड़पाता था, घर पर वो उनके लिए खुलकर रो भी नही सकता था,लेकिन जब भी बिना सवारी के स्टेशन में बैठा रहता था तो अक्सर वो रोने भी लगता था, एक दो रिक्शे वाले उसके दोस्त भी थे, जो काफी हौसला देते थे, नंदू अपना गम बताता तो बाकी भी कुछ गम के किस्से सुना देते।
इंसान का स्वभाव ही ऐसा है कि अगर खुद से ज्यादा किसी को खुश देखते है तो उनकी खुशी कम हो जाती है और अगर कोई उनसे ज्यादा दुखी हो तो भी उनका अपना दुख कम हो जाता था, उसी तरह बाबूजी के मौत के गम को भुलाने के नंदू बाकी रिक्शे वालो के गमो को ध्यान से सुनता था।

किस्मत ने बाबूजी के शोक से उबरने तक कि भी मौहलत ना दी नंदू को और कुछ दिन बाद…….

कहानी जारी है


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8 Comments

Khan sss

29-Nov-2021 07:23 PM

Umda

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Miss Lipsa

13-Sep-2021 10:54 PM

Wow

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Sahil writer

09-Sep-2021 08:49 AM

Lekhan sheli apki bahut hi kamal ki h bhavo ko or bahut hi ache se dalte h 👋👋👋

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santosh bhatt sonu

09-Sep-2021 12:14 PM

थेँक्स

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